पीछा - एक आफत | HINDI HORROR STORY | hindi bhaykatha

पीछा - एक आफत | HINDI HORROR STORY 



HINDI KAHANIYA
 HINDI HORROR STORIES

                                               लेखक : श्री. योगेश वसंत बोरसे.

       
              कुछ सालो पहले की बात है।
          एक शादी थी ,दूर छोटे से गांवमे ,शादी नजदीक के रिश्तेदार की थी तो जाना जरूरी था। सब काम -धाम छोड़कर जाना जरूरी था। वहाँ जाने के लिए ST बस का इंतजाम किया हुआ था। इसलिए कैसे पोहोचना है ये फ़िक्र नहीं थी,बस,कब पोहोचेंगे?यही सवाल था।
      क्योंकि गांव जरा आउटसाइड में था ,रास्ता या तो ख़राब था या था ही नहीं। मतलब सड़क जगह जगह से टूट चुकी थी ,उखड चुकी थी। और बस भी कौनसी ?एस टी की ,लाल डिब्बा तो कुछ बताने की जरुरत नहीं।
     धक्के झटके खाते खाते बस चल रही थी ,और हमारी यात्रा धक्के  खाते खाते आगे बढ़ रही थी। कब गांव आएगा ?कब पोहोचेंगे ?ऐसा  लगने लगा। मन में विचार आया के शादी में आना इतना जरूरी था ? या टाल  सकता था ?लेकिन अब सोचके भी क्या फायदा?चुप चाप बैठा रहा ,लोगो की बाते सुनता रहा ,देखते ही देखते शाम हो गयी ,मुझे ज्यादा बात करने की आदत थी नहीं ,तो क्या बोलता ?सिर्फ हां -हां करता हुआ खिड़की से बाहर देख रहा था ,तभी किसीने कहा की गांव नजदीक आ गया है, थोड़ी ही देर में पोहोच जाएंगे।तो राहत की सांस ली।
          चलो देर सवेर पोहोच ही गए !पूरा बदन अकड़ गया था ,पांच दस मिनिट ऐसे ही निकल गए। और झटके खाते हुए बस रूक गयी। ड्राइवर निचे उतरकर चेक करने लगा ,वैसे एक एक करते करते जेंट्स निचे उतरने लगे। क्या हुआ पूछ-ताछ करने लगे।
           मैं भी निचे उतर  गया,कोई पिशाब करने के लिए गया ,कोई थोड़ा आसपास ही टहलने लगा। दिन ढल चूका था ,कुछ ही देर में अन्धेरा होने वाला था ,इसलिए ज्यादा दूर कोई नहीं गया। मैं भी एक पेड़ के पीछे गया ,पिशाब करने के लिए। ऊपर नजर गयी ,इमली का पेड़ था। बहुत पुराना होगा ,पेड़ बड़ा था ,काफी बड़ा। जगह जगह इमली के बुटे लटके हुए थे ,और कुछ था ,ध्यान से देखा चमगादड़ जैसा कुछ था। और कुछ था जो मेरे नजरो के परे था। लेकिन महसूस हो रहा था। दिल बेचैन करने के लिए पर्याप्त था।
          तभी बस ड्रायव्हरने आवाज दी। सब लोग बस के पास जमा हो गए। मै भी सोचते सोचते वापस आ गया। लेकिन दिल से, दिमाग से वह ख़याल जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। मुझे कोई देख रहा है, लगातार देख रहा है, किसी की नजरे मेरा पीछा कर रही है ऐसा महसूस हो रहा था।
          दो - तीन बार तो मैने पीछे मुड़कर भी देखा, लेकिन कोई नहीं था। चक्कर क्या है ? कुछ समझ नहीं आ रहा था। उस पेड़ के पास जाकर गलती कर दी ऐसा लगने लगा।
         ड्रायव्हरने कहा, " बस खराब हो गई है, मैकेनिक आने के लिए  वक़्त लगेगा। " एक सज्जन ने ड्रायव्हर से बोला, " क्यों निकलते वक़्त चेक नहीं किया था। ? " " चेक किया था, गाड़ी अच्छी कंडीशन में थी इसलिए तो यहाँ तक आई। " " तो अब क्या करे ? " " कुछ नहीं यहाँ से गांव नजदीक ही है। 3 - 4  किलोमीटर होगा। जिनको रुकना है वो रुक सकते है। जिनको आगे जाना है वो जा सकते है। बहुत सारे लोगो को  ये  बात अच्छी लगी, यहाँ रुकने से अच्छा है की आगे निकलते है। ऐसे माहौल का मजा लिया जा सकता है। लेकिन सामान का लगेज का क्या करे ? तो कुछ बुजुर्ग लोग और कुछ महिलाए पीछे रुक गई। बस जैसे ही ठीक होगा वो निकलने वाले थे। और अगर रास्ते में मिल गए तो पिक करने वाले थे।
          और इस प्रकार जिनको चलने में मजा आता था, शौक था, वो बाते करते करते निकले। मै भी उनके साथ निकला। लेकिन बातो की ओर मेरा ध्यान नहीं था। दिमाग में वही ख्याल आ रहा था, कोई पीछा कर रहा है।
          देखते देखते ग्रुप बन गए, जैसे जैसे मैच होते गए ग्रुप बनते गए। जैसे स्वभाव, जैसी बाते  वैसे ग्रुप। बातो बातो में ग्रुप में डिस्टन्स बढ़ता गया। जैसे वो पिकनिक पे आये थे। कोई आगे, कोई पीछे, कोई बहुत पीछे रह गए। एक ही बस में  आने के बावजूद मै सबको पहचानता नहीं था। कोई पहचान के थे, कोई अनजाने।
          मै सोच में पड़ गया, किस ग्रुप में शामिल होना ठीक रहेगा ? समझ में नहीं आ रहा था। एक तो मुझे ज्यादा बाते करने की आदत नहीं थी। उसमे वो ख़याल दिमाग से निकलने का नाम नहीं ले रहा था। इसलिए बेचैनी बढ़ गयी थी। मन नहीं लग रहा था। हर वक़्त मुझे कोई घेर रहा है, कोई अपने ऊपर नजर रखे हुए है ऐसा लग रहा था। पहले लगा शायद मेरा वहम होगा, आभास होगा, लेकिन वह कितनी देर रहेगा ?
       नहीं ! यह हरगिज वहम नहीं है। सोचते सोचते मै बहुत पीछे रह गया। रात हो गई थी। पंछी अपने घर वापस आ गए थे। उनकी गूंज, फड़फड़ाहट माहौल को डरावना बना रहे थी ।
       मेरा ध्यान पीछे की ओर गया, मेरे पीछे एक चार - पांच लोगो का ग्रुप आ रहा था। मुझे अच्छा लगा, चलो कोई न कोई तो साथ मे है। लेकिन दिल मानने को तैयार नहीं था। नहीं, कुछ ना कुछ गड़बड़ है ये लोग बाराती नहीं है। लेकिन इनका पूरा ध्यान तो अपनी ओर है।
        मैंने सामने की ओर देखा, बाकी सब लोग बहुत आगे निकल गए थे। मैंने अपने चलने का स्पीड बढ़ाया। जोर जोर से चलने लगा। शादी में ना आता तो अच्छा होता ऐसा लगने लगा। मै जोर जोर से चलने लगा, तो पीछे का आवाज भी नजदीक आने लगा, " वो देखो ड़र गया, वो देखो भाग रहा है, उसे पकड़ो। ." और खिलखिलाके हंसी  की जैसी  आवाज चारो ओर गुंजी।
        मै घबरा गया, हंसी की आवाज औरतो की थी? फिर मैंने कुछ देर पहले जो लोग देखे वो कहा गए ? अभी रुकना मुश्किल था। सर पे पैर रखके भागने लगा। लेकिन कितना भागता ? भागने की आदत तो नहीं थी। सांस फूलने लगी, धड़कने बढ़ गई थी। अभी भागना नामुमकिन था। हिम्मत से पीछे मुड़कर देखा, कोई नही था। जान में जान आ गई। और गांव भी नजदीक आ गया था। इसलिए अब डर नहीं था। लेकिन कोई नजर रखे हुए है, ये एहसास कम होने का नाम नहीं ले रहा था।
           गांव पहुंचा शादी का घर भी आ गया। गांव छोटा था। उसमे लोडशेडिंग की वजह से लाइट बहुत कम रहती थी। मतलब इस वक़्त गांव में लाइट नहीं थी। तब तक बस भी आ गयी। जिसको जैसी जगह मिली वो वहा बैठ गया। कोई खटिया पे, कोई जमीनपर, कोई सीढ़ियोंपर, कोई पेड़ के निचे।
            कुछ देर बाद खाना हुआ। बहुत थक गया था। निंद आ रही थी। वही पर एक खटिया पड़ी थी, उसपर लेट गया। कब निंद लग गई, पता ही नहीं चला। रात को किसी ने चद्दर ओढ़ा दी। थोड़ा अच्छा लगा। निंद में ही करवट बदली।
            निंद में भी वो एहसास काम कर रहा था, कुछ देर में निंद खुली। कुछ आवाज आ रही थी। आवाज शायद खटिया के निचे से आ रही थी। खटिया के निचे झांक के देखा, कुछ नहीं था। उठकर बैठ गया। आजुबाजु देखा, घना अंधेरा, हर तरफ खामोशी। हवा भी रूककर शायद मुझे देख रही थी।  पेड़ का एक भी पत्ता हील नहीं रहा था। अभी निंद खुल ही गई है तो थोड़ा खाली होके  आएंगे ऐसा सोचकर इधर उधर नजर दौड़ाई। पर कहा जाए समझ नहीं आ रहा था।
          थोड़ी खुली जगह जाके खाली हुआ तो अच्छा लगा। वक़्त का पता नहीं चल रहा था। दो बजे या तीन ? खटिया पे आके लेट गया। निंद नहीं आ रही थी तो आसमान में तारे गिनने लगा, और कब निंद आ  गई पता ही नहीं चला।
            और....  खटिया के निचे से किसीने जोर से लाथ मारी। कमर के  ऊपर। तो हड़बड़ाके उठ गया। किसने लाथ मारी ? खटिया के निचे देखा तो कोई नहीं था। वापस कब निंद लग गई पता ही नहीं चला।
           सुबह निंद खुली तो चहलकदमी, आवाजाही शुरू हो गई थी। सुबह हो गई थी। सूर्य देवता अपना उजाला चारो ओर फ़ैला रहे थे। शादी के घर से कोई यजमान आए और मेरा हालचाल पूछने लगे, "क्यों भाईसाहब, निंद आई की नहीं ? " मैंने घबराते घबराते, सहमते हुए जो कुछ हुआ था, सब बता दिया।
             उन्होंने हसके मेरी पीठ थपथपाई " भाईसाहब छोटे छोटे गांवो में ,ऐसे माहौल में, ऐसी बाते होती रहती है। इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। वह बाते भूल जाओ।
             और मेरी पीठ थपथपाके निकल गए.....                                                                                                                                                                                                              

                                                  TO BE CONTINUED......  

           NOTE :- इसके आगेकी कहानी आपको 'चक्रव्यूह 'में मिलेगी।  

                                              लेखक :-योगेश वसंत बोरसे. 



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